नई दिल्ली, 26 जुलाई (आईएएनएस)। डॉ। वासुदेव शरण अग्रवाल का नाम उन विद्वानों में अग्रणी है, जिन्होंने विश्व मंच पर भारत के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और साहित्यिक विरासत की स्थापना की। 7 अगस्त, 1904 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के खेदा गांव में जन्मे, वासुदेव शरण अग्रवाल ने भारतीय इतिहास, संस्कृति, कला, साहित्य और पुरातत्व के क्षेत्र में अपने अमिट छाप को छोड़ दिया। उनके पिता गोपीनाथ अग्रवाल और मां सीता देवी के संरक्षण में उनका बचपन लखनऊ में बिताया गया था, जहां से उनकी शैक्षिक यात्रा ने गति पकड़ी थी। साहित्य, कला और प्राचीन भारतीय ग्रंथों में उनकी गहरी रुचि ने उन्हें एक बहुआयामी विद्वान बना दिया।
वासुदेव शरण अग्रवाल ने 1929 में लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए प्राप्त किया, 1941 में पीएचडी, और 1946 में डी। लिट। उनके डॉक्टरेट और पोस्ट-डॉक्टोरल रिसर्च ने पाणिनी के अष्टाध्याई में निहित विषय सामग्री थी, जिसे बाद में 1953 में “भारत युग नॉन टू पैनिनी” के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस काम ने भारतीय संस्कृति और इतिहास के अध्ययन के लिए एक मूल स्रोत के रूप में पाणिनी के व्याकरण को स्थापित किया।
वासुदेव शरण अग्रवाल का दायरा केवल शैक्षिक अनुसंधान तक सीमित नहीं था। उन्होंने 1931 में मथुरा आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम के क्यूरेटर के रूप में अपने करियर की शुरुआत की और 1940 में लखनऊ में उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय के निदेशक बने। 1951 में, उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कला और आर्किटेक्चर विभाग के प्रोफेसर और विभाग के प्रमुख नियुक्त किए गए।
उनके लेखन ने साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित किए। 1956 में, उनके काम “पद्मावत संजीवनी स्पष्टीकरण” को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह काम मलिक मुहम्मद जयसी की रचना “पद्मावत” की गहन और सांस्कृतिक व्याख्या थी।
इसके अलावा, “पानिनिकालिन भरतवर्श”, “हर्षचरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन”, “देवी-माहताम्या” और “भारतीय कला का इतिहास” जैसी उनकी किताबें भारतीय साहित्य और संस्कृति को नया रवैया देती हैं।
वासुदेव शरण अग्रवाल की भाषा शैली सरल, चिकनी और विद्वान थी। वे सामान्य पाठक के लिए जटिल सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विषयों को फैलाने में सक्षम थे। उनके कामों ने संस्कृत, हिंदी और प्राचीन भारतीय ग्रंथों के गहरे अध्ययन को दर्शाया। उन्होंने “नागरी प्राचरिनी पैट्रिका” के संपादक के रूप में भी योगदान दिया, जिसने हिंदी साहित्य को समृद्ध करने में मदद की।
वासुदेव शरण अग्रवाल की मृत्यु 26 जुलाई 1966 को हुई, लेकिन उनकी छात्रवृत्ति और रचनाएँ अभी भी प्रासंगिक हैं। उनके काम ने भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के लिए एक नई दिशा दी। वह न केवल एक विद्वान थे, बल्कि एक कला-पारंपरिक, पुरातत्वविद्, भाषा शिक्षक और लिटरटेटर थे जिन्होंने भारत की सांस्कृतिक विरासत को दुनिया के लिए प्रस्तुत किया था।
आज, जब हम भारतीय संस्कृति की वैश्विक पहचान के बारे में बात करते हैं, तो वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे विद्वानों का योगदान अविस्मरणीय है। उनकी रचनाएँ और विचार हमें अपनी जड़ों से जोड़ते हैं और भविष्य की पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे।
-इंस
Aks/as